Thursday, August 21, 2014

आदिवासी कौन है?

आदिवासी कौन है? वो आदिवासी क्यों कहलाये? कार्य कारण के सिद्धांत के अनुसार कोई भी कार्य के पीछे कोई न कोई कारणअवश्य होता है, तो नक्षलवाद और माओवाद के पीछे क्या कारण जवाबदार रहा होगा? इसका जवाब हमें इतिहास से ही मिलशकता है.

इतिहास के जानकर भारत के आदिवासियो को विश्व की प्राचीनतम और सुआयोजित नगर रचना वाले हरप्पा और मोहें-जो-दरो जैसेनगरो को विकसित करने वाली सिन्धु सभ्यता के जनक बताते है. मतलब की आदिवासी भारत के मूलनिवासी है, और ईशापूर्व 3000 साल पहेले आदिवासी प्रजा द्रविड़ प्रजा के नाम से जानी जाती थी. बर्बर आर्यों के अचानक हुए हमले से उनको अपने मूल स्थानसे विस्थापित होना पड़ा. आर्यों ने द्रविड़ो की पहचान मिटाने के लिए कई हथकंडे अपनाये. वैदिक काल में उनको राक्षस, दानव, औरअसुर जैसी उपमाए दी गई, (ऋग्वेद में श्री कृष्ण को भी असुर कहा गया है.) आखिर में आर्यों को चातुर्वर्ण व्यवथा नाम कीअ)सामाजिक व्यवथा दाखिल करके सफलता मिली. महाभारत काल में गुरु द्रोण ने आदिवासी एकलव्य से दक्षिणा के तौर पर एकलव्य का अंगूठा ले लिया था, जब की एकलव्य ने द्रोण से शिक्षा प्राप्त ही नहीं की थी. शायद आदिवासियों के अंगूठे लेने कीशुरुआत यही से हुई थी जो आज भी चालू है. आज भी मल्टी नेशनल कंपनीओ को दी जाने वाली जमीन के कागजाद पर आदिवासीकिशान के दस्तखत नहीं बल्कि उसका अंगूठा ही लिया जाता है. शायद अंगूठे लेने के लिए ही आदिवासीओ को अशिक्षित रखा गयाहो! इस तरह जो भारत के एक समय के शासक थे वो अपने ही देश में गुलाम बन गए. strot : https://www.facebook.com/notes/284355924952633/
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आदिवासी कौन ?

कुछ लोग बातचीत या लेखन में प्रायः कुछ विशेष रंग-रूप वाले लोगों के लिए 'आदिवासी' शब्द का प्रयोग करते हैं। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने उनमें और शेष भारतवासी हिन्दुओं में फूट डालने के लिए यह शब्द गढ़ा था। उन्होंने कहा कि भारत के शहरों और गांवों में रहने वाले हिन्दू तो आर्य हैं, जो बाहर से आये और व्यापार तथा खेती पर अधिकार कर लिया। उन्होंने यहां के मूल निवासियों को वन और पर्वतों में खदेड़ दिया। अंग्रेजों ने कई इतिहासकारों को अपने जाल में फंसाकर यह सिद्धान्त पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल करा लिया। इस कारण गुलामी काल में हम यही पढ़ते और समझते रहे।

पर अंग्रेजों के जाने के बाद भी इतिहास की इस भयानक भूल को सुधारा नहीं गया। यह सिद्धान्त पूर्णतः भ्रामक है। जैसे नगरों में रहने वाले नगरवासी हैं, वैसे ही ग्रामवासी, पर्वतवासी और वनवासी भी हैं। मौसम, खानपान और काम के प्रकार से लोगों के रंग-रूप में परिवर्तन भले ही हो जाए; पर इससे वे किसी और देश के वासी नहीं हो जाते। श्रीराम ने लाखों वर्ष पूर्व इन्हीं वन और पर्वतवासियों को साथ लेकर तब से सबसे बड़े आतंकवादी रावण को मारा था।

श्रीराम और श्रीकृष्ण का वंशज होने के नाते मैं तो स्वयं को इसी भारतभूमि का आदिवासी मानता हूं। मेरे पुरखे लाखों-करोड़ों वर्ष से यहीं रह रहे हैं। जो अंग्रेज और अंग्रेजपरस्त इतिहासकारों के झूठे सिद्धान्तों पर विश्वास कर स्वयं को भारत का आदिवासी नहीं मानते, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि वे किस देश, दुनिया या ग्रह के आदिवासी हैं; वे कितने साल या पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं; वे कब तक इस पावन धरा पर बोझ बन कर रहेंगे और अपने पुरखों के संसार में ही क्यों नहीं चले जाते ? स्त्रोत : https://www.facebook.com/permalink.php?id=215716875250921&story_fbid=215755675247041
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कौन हैं आदिवासी?

गंगा-ब्रह्मपुत्रा के मैदानी भाग में ‘होमोसेपियन’ मनुष्यों की उपस्थिति का एक प्रमाण मिला है. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि आज से दस हजार वर्ष पूर्व मनुष्य रूप में मनुष्य का अस्तित्व भारतीय उपमहाद्वीप में था. अन्य इतिहासकारों ने भी इस बात का छिटपुट उल्लेख किया है और पुरातत्ववेत्ताओं ने उस मनुष्य जाति को ‘नेग्रिटो’ नाम दिया है. ये लोग दक्षिण अफ्रिका से लेकर और उसके आगे पूर्व दक्षिण के देशों में भी फैले हुए थे. भारत में निवास करने वाली अधिकांश आदिवासी जातियां उन्हीं की संतान हैं. इन लोगों ने आर्यों के आने के पूर्व यहां मनुष्य की आदिम सभ्यता का विकास किया, वनों से अच्छादित और दलदली जमीन को रहने लायक बनाया, खाद्य, अखाद्य की पहचान का ऐतिहासिक कार्य किया और कई तरह के अन्न एवं वनस्पति उगाने की पद्धति की खोज की. मोहनजोदड़ो-हड़प्पा की सभ्यता इन आदिवासियों की ही विरासत है या नहीं इस पर अभी पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इधर प्राप्त कुछ खोजों में इस बात के संकेत मिले हैं कि आदिवासियों का मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता से घनिष्ठ संबंध रहा है.
ज्ञातव्य है कि सन् 1921 में दो भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यताओं को खोज निकाला था और भारतीय इतिहास कम से कम पांच छह हजार साल पीछे पहुंच गया था. उसके बाद के वर्षों में मोहनजोदड़ो हड़प्पा की श्रृंखला के दर्जनों अन्य शहरों के अवशेष खोज निकाले गये हैं और इन अवशेषों से प्राप्त आलेखों, ताम्र पट्टों से जो जीवन-दर्शन परिलक्षित होता है, उसका अद्भुत साम्य आदिवासी जनता के जीवन-दर्शन, उनके मिथकों रूपकों से है. इस तथ्य के गहन जांच पड़ताल और खोजबीन का काम भागलपुर में 90 के दसक के प्रारंभिक वर्षों में परिवहन पदाध्किारी के रूप में पदस्थापित निर्मल कुमार वर्मा कर रहे थे जिनकी बाद में मृत्यू हो गयी. उनकी खोजबीन का आधार थे साहबगंज में गंगा किनारे बसे आदिवासी. उनका दावा था कि मोहनजोदड़ो हड़प्पा से प्राप्त करीब ढाई हजार संकेत समूहों के अर्थ उन्होंने समझ लिये हैं और उनकी खोजबीन का निष्कर्ष यह है कि आदिवासी जनता ही मोहनजोदड़ो हड़प्पा की सभ्यता की वारिस हैं.
इतिहासवेत्ताओं के कथनानुसार समकालीन सुमिरेया बेबिलोनिया की सभ्यता से भी बढ़ी चढ़ी सिंधुघाटी की इस सभ्यता को आज से साढ़े तीन-चार हजार वर्ष पूर्व पश्चिमोत्तर भागों से प्रवेश करने वाले आक्रामक आर्यों ने नष्ट कर दिया. वेदों में आर्यों ने कम से कम नब्बे छोटे बड़े किलों को नष्ट करने की बात स्वीकारी है और स्वयं को ‘पुरूइंद्र’ से विभूषित किया है. खैर, इन सब बातों पर यहां विस्तार से चर्चा करने का अवकश नहीं, मोहनजोदड़ो-हड़प्पा से कुछ नरकंकाल भी प्राप्त हुए थे. अधिकतर नरकंकाल भूमध्य सागरीय जाति के हैं, भारत उपमहाद्वीप में उस उपजाति को द्रविड़ों की संज्ञा दी जाती है. इन द्रविड़ों में और आदिवासियों में क्या रिश्ता है, यह अभी खोज का विषय है, लेकिन आदिवासी भाषा परिवार और द्रविड़ भाषा समूह में निकटता के प्रमाण प्राप्त हुए हैं.
गौरतलब यह है कि इतिहास के उस आदिम काल से आर्य और उनके द्वारा अनार्य के रूप में परिभाषित आदिवासी साथ रहते आये हैं लेकिन किसी भी उपलब्ध इतिहास ग्रंथ में इस बात की चर्चा नहीं कि सिंधूघाटी की सभ्यता से आर्यों द्वारा खदेड़े गये ‘नेग्रिटो’ जाति के उस मनुष्य समुदाय का क्या हुआ? उनका जीवनयापन कैसे चल रहा था? वे कहां गये? उन्होंने अपना अस्तित्व कैसे बचाया? वैसे ‘नेग्रिटो’ जाति के उन संघर्षशील मनुष्यों का इतिहास एक छाया की भांति इस भारतीय उपमहाद्वीप में आर्यों के इतिहास के साथ जुड़ा रहा है और इसको क्रमबद्ध रूप में रख कर उनके इतिहास की रूपरेखा तैयार की जा सकती है. इारखंडी आंदोलन से जुड़े कुछ बुद्धिजीवी इस प्रयास में लगे भी हैं.
आर्यों से सैकड़ों-हजारों वर्ष तक सतत संघर्ष करते और उनके छल प्रपंच के हाथों पराजित होते आदिवासी अपनी उर्वरा जमीन छोड़ घने जंगलों, पहाड़ों-कंदराओं में प्रवेश करते गये, जो पराजित हो पकड़े गये और दास बने, उन्हें आर्यों की वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ श्रेणी में रखा गया. आर्यों के यहां आने के बाद भी अनेक जातियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया, लेकिन चूंकि उनमें से अधिकतर आर्य जाति की ही शाखा-उपशाखाएं थी, इसलिए उन्हें आर्यों द्वारा स्थापित भारतीय समाज में जज्ब होते देर न लगी, लेकिन आदिवासियों से मौलिक भिन्नता की वजह से वे आदिवासियों को अपने में जज्ब नहीं कर सके. इसके लिए प्रयास भी नहीं किया गया, क्योंकि यह दो प्रतिलोम संस्कृतियों का संघर्ष था. यदि वे उन्हे जज्ब करने का प्रयास करते तो उनकी अपनी संस्कृति ही खत्म हो जाती, उनके सामाजिक जीवन का आधर वर्णाश्रम धर्म ही खत्म हो जाता. इसके बावजूद अवांतर प्रसंगों से धर्म और रहन-सहन के तौर तरीकों में बहुत सी बातों का प्रवेश आर्य सभ्यता में आदिवासी सभ्यता से हुआ, जिसकी वजह से उनके मूल वैदिक धर्म और जीवन व्यवस्था में अनेकानेक परिवर्तन भी हुए.
तो, आर्यों से संघर्ष करते हुए और पराजित होकर पीछे हटते हुए आदिवासी राष्ट्रीयता का उदय हुआ. यह राष्ट्रीयता कैसी थी, उसकी भौगोलिक सीमा क्या और कहां तक थी, यह सब स्पष्ट नहीं, लेकिन उसका अस्तित्व था, वरना यह सभ्यता आज तक अक्षुण्ण न रहती, आर्य उन्हें कब का नेस्तनाबुद कर चुके होते. रामायण काल में अयोध्या के दो निर्वासित राजकुमारों ने 14 वर्ष का वनवास आर्यों की राज्य सीमा के बाहर व्यतीत किया था. महाभारत काल में भी लक्षागृह से बच कर निकले पांडवों ने वहां छुपकर कई वर्ष व्यतीत किये तथा जुए में शकुनि से पराजित होने के बाद 12 वर्ष का वनवास और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास का बड़ा हिस्सा पांडवों ने वहां व्यतीत किये, जो भरतवंशी धृतराष्ट्र जैसे शक्तिशाली राज्य की सीमा के बाहर था.
इतिहास के पृष्ठ आज भी बहुत स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन इतना हुआ था कि परस्पर साथ-साथ रहने की वजह से दोनों प्रतिलोम संस्कृतियों की आम जनता के बीच संपर्क बना रहता था और अपनी जरूरतों के लिए वे एक दूसरे से मिलते भी थे. लेकिन आदिवासियों की एक अपनी राष्ट्रीयता थी. यह अलग बात है कि उस राष्ट्रीयता का स्वरूप, उसकी शासन-व्यवस्था भिन्न थी. लेकिन यह बात संदेह से परे हैं कि उस राष्ट्रीयता का अस्तित्व था, वरना प्रतिलोम जीवन मूल्यों वाली उनकी संस्कृति जाने कब की नष्ट हो चुकी होती. लेकिन चूंकि उन्हें अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष और स्थान परिवर्तन करना पड़ा, इसलिए तकनीकी दृष्टि से वह समाज आदिम समाज के स्वरूप से आगे नहीं बढ़ सका. वैसे, अंग्रेजों के आने के पूर्व वहां सामंतवाद का उदय होने लगा था और आदिवासी राष्ट्रीयता के सीमावर्ती क्षेत्रों में नागवंशियों और सदान सामंत अस्तित्व में आने लगे थे, लेकिन यह सामंतवाद कई मायनों में गैर आदिवासी समाज के सामंतवाद से भिन्न था.
तकीनकी दृष्टि से, आर्थिक विकास की दृष्टि से आदिवासी राष्ट्रीयता पीछे रह गयी तो उसकी पहली वजह तो यह कि उन्हें निरंतर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा. दूसरी बात यह कि आर्यों के आने के पहले आदिवासी समाज एक कृषक समाज था और प्रसन्नसलिला नदियों के किनारे रहा करता था. धान की खेती करना वे ही जानते थे. लेकिन आर्यों ने सुसभ्य, सुसंस्कृत और शांतिप्रिय जाति को खानाबदोशी के लिए मजबूत कर दिया और पनाह लिया उन्होंने पहाड़ों कंदराओं और जंगलों में जहां वे खेती नहीं कर सकते थे. उनका जीवन जंगल पर निर्भर होता चला गया. जब आर्यों और अनार्यों के रूप में चित्रित आदिवासियों के के बीच सैकड़ों वर्षों तक चलने वाले युद्ध की लपट शांत हुई तब उन्होंने कहीं कहीं खेती – बाड़ी भी शुरू की, लेकिन उनके जीवन का आधार था जंगल. जंगल उन्हें पनाह भी देता था और जिंदा रहने के लिए भोजन भी. चूंकि उस वक्त तक अर्थव्यवस्था का आधार कृषि उत्पादित वस्तुएं ही थी, इसलिए वनों और खदानों के दोहन की जरूरत नहीं पड़ी, लेकिन 16वीं शताब्दी में यहां व्यापार के लिए पहुंची इस्ट इंडिया कंपनी जो धीरे-धीरे यहां जम गयी. 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद रानी विक्टोरिया का शासन यहां स्थापित हो गया और आदिवासियों के साथ उनके संघर्ष का एक दौर शुरू हुआ. स्त्रोत : http://pathaar.wordpress.com/2011/07/16/%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%A8-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80/
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कौन है आदिवासी
30 July 2013

30/जुलाई/2013 (ITNN)>>>> आदिवासी शब्द दो शब्दों आदि और वासी से मिल कर निर्मित है और इसका अर्थ है जो आदि काल से वास कर रहा हो अर्थात मूल निवासी। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है। पुरातन संस्कृत ग्रंथो में आदिवासियों को अत्विका और वनवासी भी कहा गया है। संविधान में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति पद का उपयोग किया गया है। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में संथाल, गोंड, मुंडा, हो, बोडो, भील, खासी, सहरिया, गरासिया, मीणा, उरांव, बिरहोर आदि हैं।

महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) कह कर संबोधित किया था। इस पर वामपंथी मानविज्ञानियों ने प्रश्न उठाया था कि क्या( मैदान में रहने वालों को मैदानी कहा जाता है? आदिवासी को दक्षिणपंथी लोग वनवासी या जंगली कहकर पुकारते हैं। इस तरह के नामों के पीछे बुनियादी रूप से यह धारणा काम कर रही होती है कि आदिवासी जंगल में वास करते हैं। वे देश के मूल निवासी हैं या नहीं तथा आर्य यहीं के मूल निवासी हैं या बाहर से आए हैं? भारत के मूलनिवासी कौन हैं, ये तमाम प्रश्न अभी भी भारतीय मानव विज्ञान में उलझा हुआ है।

आमतौर पर आदिवासियों को भारत मे जनजातीय लोगों के रूप मे जाना जाता है। आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों उड़ीसा , मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल मे अल्पसंख्यक है जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं, जैसे मिजोरम। भारत सरकार ने इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में "अनुसूचित जनजातियों " के रूप में मान्यता दी है। अक्सर इन्हें अनुसूचित जातियों के साथ एक ही श्रेणी " अनुसूचित जातियों और जनजातियों " मे रखा जाता है जो कुछ सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के लिए पात्र है।

आदिवासी नृत्य
आदिवासी के अपने जनजातीय संप्रदाय हैं, जो इस्लाम या वैदिक हिंदू धर्म से अलग हैं पर तांत्रिक शैव के अधिक करीब हैं। 19 वीं सदी के दौरान ईसाई मिशनरियों द्वारा इनकी एक बडी़ संख्या का परिवर्तन कराकर ईसाई बना दिया गया। माना जाता है कि हिंदुओं के देव भगवान शिव भी मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे लेकिन आर्यों ने भी उन्हें देवता के रूप मे स्वीकार कर लिया। आदिवासियों का जिक्र रामायण में भी मिलता है, जिसमें राजा गोहु और उनकी प्रजा चित्रकूट में श्रीराम की सहायता करती है। आधुनिक युग में एक आदिवासी बिरसा मुंडा, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक धार्मिक नेता भी थे। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि भी एक भील आदिवासी थे।

बहुत से छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यवसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन यापन का स्रोत रहे थे। आदिवासियों के विशेषज्ञ जे।जे। राय बर्मन के अनुसार आदिवासियों में सभी जातियां मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं आतीं, इसी तरह मूल आदिवासियों में अनेक जनजातियां बाहर से आयी हैं। आज इन जनजातियों के लोग जहां रहते हैं वहां वे मूल रूप से नहीं रहते थे। मसलन मणिपुर के कूकी आदिवासी,मिजोरम के लूसिस जनजाति के लोग मूलतः दक्षिण चीन और चिन पर्वत के निवासी हैं। ये लोग कुछ सौ साल पहले ही स्थानान्तरित होकर भारत में आए हैं। 

कूकी को ब्रिटिश शासकों ने नागा बहुल इलाकों में बसाया था। जिससे नागा और वैष्णवपंथी मैइती जनजाति के बीच में बफर जॉन पैदा किया जाए। लूसी जनजाति से सैलो का संबंध है इसके मुखिया को ब्रिटिश शासकों ने ठेकेदार के रूप में बढ़ावा दिया जिससे वह मिजोरम में सड़कें बनाए। इस तरह अन्य जगह से लाकर बसाए गए आदिवासियों की बस्तियों का दायरा धीरे-धीरे त्रिपुरा तक फैल गया। जिसे इन दिनों तुइकुक के नाम से जानते हैं। यहा त्रिपुरा के राजा की नीति थी ,उसने अपने राज्य में रियांग और चकमा जनजाति के लोगों को बाहर से लाकर बसाया। जिससे कॉटन मिलों के लिए झूम की खेती के जरिए कॉटन का अबाधित प्रवाह बनाए रखा जा सके।

बोडो जनजाति के लोग मूलतः भूटान के हैं और बाद में वे असम में आकर बस गए। टोटोपारा इलाके के टोटो जनजाति के लोग भूटान से आकर उत्तर बंगाल की सीमा पर आकर बस गए। इनमें अनेक ऐसी जनजातियां भी हैं जो एक जमाने में अपराधी जाति के रूप में ही जानी जाती थीं उन्हें भूटान के राजा ने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था। मेघालय में रहने वाली खासी जनजाति के लोग मूलतः कम्पूचिया के हैं और माइग्रेट होकर कुछ सौ वर्ष पहले ही मेघालय में आकर बसे हैं। ये खमेर जनजाति का अंग हैं। देंजोंग भूटिया जनजाति जो सिक्किम की वफादार जनजाति है ,वह तिब्बत से आकर बसे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल के वीरभूम और मिदनापुर जिले से माइग्रेट करके संथाल जनजाति के लोग झाररखण्ड के संथाल परगना में जाकर बस गए हैं। ये ऐतिहासिक तथ्य हैं।

लेकिन इस ऐतिहासिक तथ्य से मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं छीन जाता। जब तक जंगल तथाकथित सभी लोगो को डराता रहा तब तक उसमे निवास करने वाले आदिवासी सुरक्षित थे। प्रकृति की गोद में अलमस्त सी जिन्दगी से इन्हें कोई शिकवा शिकायत भी नहीं थी। लेकिन पैसे की भूख तथाकथित सभ्य मानव को जंगल तक खींच लाई और आदिवासी जंगल से बेदखल किये जाने लगे। सरकार के पास इनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखल महानगरों में शोषित-उपेक्षित आदिवासी किस आधार पर इसे अपना देश कहें? बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने आदिवासियों के सामने अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है। 

जो लोग आदिवासी इलाकों में बच गए, वे सरकार और उग्र वामपंथ की दोहरी हिंसा में फंसे हैं। अन्यत्र बसे आदिवासियों की स्थिति बिना जड़ के पेड़ जैसी हो गई है। नदियों, पहाड़ों, जंगलों, आदिवासी पड़ोस के बिना उनकी भाषा और संस्कृति, और उससे निर्मित होने वाली पहचान ही कहीं खोती जा रही है। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के लिए इतना गहरा संकट इससे पहले नहीं पैदा हुआ। जब सवाल अस्तित्व का हो तो प्रतिरोध भी स्वाभाविक है। 

इस प्रतिरोध को भुनाने की कोशिश नक्सलवाद के रूप में नजर आती है। इन्हें सर्वप्रथम यही नहीं मालूम कि नस्क्सल पंथ है क्या? भोले भाले आदिवासी सरकार और नक्सलवादी दोनों ओर से पिस रहे हैं। आज जरुरत है एक मानवीय सोच की, या तो इन्हें इनका इलाका फिर से वापस मिल जाए ताकि तथाकथित सभ्य समाज के प्रपंचो से दूर ये अपनी संस्कृति के मौलिक स्वरूप के साथ जीवन यापन कर सके या फिर समाज के मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश हो ताकि शहरों में आकर ये जंगली ना कहलायें। 
इनसाईट डेस्क- See more at: http://www.insighttvnews.com/newsdetails.php?show=12120#sthash.8hy87jfu.dpuf

स्त्रोत : http://www.insighttvnews.com/newsdetails.php?show=12120
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